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ज़हरीले हैं ताल-तलय्या। 
दाना-दुनका खाने वाली, 
कैसे बचे यहाँ गौरय्या? 
अन्न उगाने के लालच में, 
ज़हर भरी हम खाद लगाते, 
खाकर जहरीले भोजन को, 
रोगों को हम पास बुलाते, 
घटती जाती हैं दुनिया में, 
अपनी ये प्यारी गौरय्या। दाना-दुनका खाने वाली, 
कैसे बचे यहाँ गौरय्या?? 
चिड़िया का तो छोटा तन है, 
छोटे तन में छोटा मन है, 
विष को नहीं पचा पाती है, 
इसीलिए तो मर जाती है, 
सुबह जगाने वाली जग को, 
अपनी ये प्यारी गौरय्या।। 
दाना-दुनका खाने वाली, 
कैसे बचे यहाँ गौरय्या?? 
गिद्धों के अस्तित्व लुप्त हैं, 
चिड़ियाएँ भी अब विलुप्त हैं, 
खुशियों में मातम पसरा है, 
अपनी बंजर हुई धरा है, 
नहीं दिखाई देती हमको, 
अपनी ये प्यारी गौरय्या।। 
दाना-दुनका खाने वाली, 
कैसे बचे यहाँ गौरय्या?? | 
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सोमवार, 20 मार्च 2017
गीत "कैसे बचे यहाँ गौरय्या!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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9 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर गीत।
वाह बहुत खूब बेहतरीन रचनात्मक अभिव्यक्ति
सुन्दर सृजन
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'जी
सादर नमस्ते
खेतों में विष भरा हुआ है,
ज़हरीले हैं ताल-तलय्या।
दाना-दुनका खाने वाली,
सटीक बात कही आपने। . किसान बेचारा पैदावार बढ़ाकर कुछ और पासी कमाने के चक्क्र में पढ़ चूका हैं। .. वो भी क्या करे ...हम्म्म
कड़वी और सार्थक रचना
अपनी लेखन को हम सब से साझा करने के लिए आभार
कोविड -१९ के इस समय में अपने और अपने परिवार जनो का ख्याल रखें। .स्वस्थ रहे।
आधुनिकता की भेट चढ गए, जंगल खेत खलिहान..
घर भी छीन लिए जीवों के..ये कैसा उत्थान ??
बहुत सुंदर गीत है..आपका
सादर प्रणाम
अन्न उगाने के लालच में,
ज़हर भरी हम खाद लगाते,
खाकर जहरीले भोजन को,
रोगों को हम पास बुलाते,
एकदम सही कहा आपने सर ऐसा ही होता है हम लोग अधिक उपज की लालच में जहरली दवाओं का इस्तेमाल बेजिझक करते हैं एक बार भी अन्य जीव- जन्तु के बारे में नहीं सोचते हैं
याथर्थ स्थिति को बयां करती बहुत ही प्यारी रचना!
अनुपम लेखन।
बहुत सटीक सार्थक बातें कविता के माध्यम से ।
सुंदर सृजन।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
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