सरदी का मौसम गया, हुआ शीत का अन्त।
खुशियाँ सबको बाँटकर, वापिस गया बसन्त।।
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गरम हवा चलने लगी, फसल गयी है सूख।
घर में मेहूँ आ गये, मिटी कृषक की भूख।।
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नवसम्वत् के साथ में, सूरज हुआ जवान।
नभ से आग बरस रही, तपने लगे मकान।।
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हिमगिरि से हिम पिघलता, चहके चारों धाम।
हरि के दर्शनमात्र से, मिटते ताप तमाम।।
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दोहों में ही निहित है, जीवन का भावार्थ।
गरमी में अच्छे लगें, शीतल पेय पदार्थ।।
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करता लू का शमन है, खरबूजा-तरबूज।
ककड़ी-खीरा बदन को, रखते हैं महफूज।।
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ठण्डक देता सन्तरा, ताकत देता सेब।
महँगाई इतनी बढ़ी, खाली सबकी जेब।।
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मंगलवार, 4 अप्रैल 2017
दोहे "जीवन का भावार्थ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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14 टिप्पणियां:
सुन्दर शब्द रचना
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वाह बहुत खूब बढ़िया रचना
बहुत सुन्दर अभिवयक्ति
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बहुत ही सुंदर दोहे
लाजवाब दोहे
सभी दोहे बहुत अच्छे लगे। ..मौसमों से रंग बिखेरते
प्रणाम
कोविड -१९ के इस समय में अपने और अपने परिवार जानो का ख्याल रखें। .स्वस्थ रहे। .
बहुत ही सुंदर दोहे मयंक जी । आपकी रचनाएं बहुत ही उम्दा होती हैं। लाजवाब । अपना ख्याल रखियेगा ।
सादर ।
Bahut hi achi hai.
bahut sundar
बहुत सुंदर दोहे 🙏
'दोहों में ही निहित है, जीवन का भावार्थ।'
- और उस भावार्थ को दोहों में निरूपित कर रहे हैं.
बहुत अच्छे दोहे लिखे हैं आपने..
सादर प्रणाम
Shandar sir
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