“अमर भारती पहेली-50” (गोल्डन जुबली अंक) |
नीचे पद्यांश दिया जा रहा है- "मसृण, गांधार देश के नील रोम वाले मेषों के चर्म, ढक रहे थे उसका वपु कांत बन रहा था वह कोमल वर्म। नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग, खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग। आह वह मुख पश्विम के व्योम बीच जब घिरते हों घन श्याम, अरूण रवि-मंडल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम।" ------ 1- सन्दर्भ सहित इस पद्यांश की व्याख्या कीजिए! 2- इसके रचयिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए! 3- आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य क्या होता है? --------------------- नोट- यूनिकोड या मंगल फॉण्ट में उपरोक्त प्रश्नों के सटीक और सबसे पहले उत्तर देने वाले प्रतिभागी को पहेली का विजेता घोषित किया जायेगा! इन्हें साहित्य शारदा मंच, खटीमा (उत्तराखण्ड) द्वारा "साहित्यश्री" की मानद उपाधि से अलंकृत किया जायेगा! क्रमशः 2-3-4-5 …....... पर रखा जायेगा! ---------------------- इन प्रश्नों के उत्तर आप 28 सितम्बर, 2010, सायं 7 बजे तक दे सकते हैं! परिणाम 30 सितम्बर, 2010 को प्रातः 9 बजे तक प्रकाशित किये जायेंगे! ----------- (30 सितम्बर को इस ब्लॉग की ब्लॉगर का जन्मदिन भी तो है) |
अमर भारती पहेली न.-51 अगले रविवार को प्रातः 8 बजे प्रकाशित की जायेगी! |
46 टिप्पणियां:
अपने बस की नहीं यह M.A.की परीक्षा
एक घंटे से इंतज़ार मे था पता नहीं क्या निकलेगा पहेली मे ....
सब की रूचि की कोमन बात होनी चाहिये थी पहेली मे .....
2.कामायनी | जयशंकर प्रसाद
जय शंकर प्रसाद : एक परिचय
आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रतिभाशाली कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन १८८९ में काशी के एक संपन्न वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता देवीप्रसाद जी तम्बाकू ,सुरती और सूघनी का व्यापार करते थे, इसलिए उन्हें सूघनी साहू कहा जाता था। प्रसाद की आयु जब १२ बर्ष की थी ,तभी इनके पिता का देहांत हो गया। अतः इनकी स्कूल की शिक्षा आठवी के बाद न हो सकी । घर पर रहकर ही इन्होने हिन्दी,संस्कृत ,उर्दू ,अंग्रेजी और फारसी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। इन्होने वेद,उपनिषद ,इतिहास और दर्शन का गंभीर रूप से अध्यन किया था। बाल्यकाल से ही इनकी रूचि कविता लिखने में थी। पहले ये ब्रज भाषा में कविता लिखते थे, किंतु बाद में खड़ी बोली में लिखने लगे। सन १९३७ में क्षय रोग से इनकी मौत हो गई।
रचनायें :
इन्होने काव्य ,नाटक ,कहानी ,उपन्यास तथा निबंध आदि साहित्य की हर बिधा में लेखनी चलायी तथा सभी क्षेत्र में सफलता प्राप्त की । मूलतः ये कवि थे। इनकी प्रमुख रचनाये है:
कविताये:महाराणा का मह्त्व, चित्राधार ,कानन-कुसुम ,लहर ,झरना ,आंसू ,करुणालय और कामायनी ।
नाटक: अजातशत्रु ,एक घूंट ,चन्द्रगुप्त ,स्कंदगुप्त और धुवास्वामिनी
कहानी -संग्रह : छाया,प्रतिध्वनि ,आंधी,आकाशदीप और इंद्रजाल ।
उपन्यास : कंकाल ,तितली ,इरावती (अपूर्ण )
निबंध संग्रह : काव्य कला तथा अन्य निबंध।
जय शंकर प्रसाद : एक परिचय
आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रतिभाशाली कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन १८८९ में काशी के एक संपन्न वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता देवीप्रसाद जी तम्बाकू ,सुरती और सूघनी का व्यापार करते थे, इसलिए उन्हें सूघनी साहू कहा जाता था। प्रसाद की आयु जब १२ बर्ष की थी ,तभी इनके पिता का देहांत हो गया। अतः इनकी स्कूल की शिक्षा आठवी के बाद न हो सकी । घर पर रहकर ही इन्होने हिन्दी,संस्कृत ,उर्दू ,अंग्रेजी और फारसी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। इन्होने वेद,उपनिषद ,इतिहास और दर्शन का गंभीर रूप से अध्यन किया था। बाल्यकाल से ही इनकी रूचि कविता लिखने में थी। पहले ये ब्रज भाषा में कविता लिखते थे, किंतु बाद में खड़ी बोली में लिखने लगे। सन १९३७ में क्षय रोग से इनकी मौत हो गई।
.......जारी
रचनायें :
इन्होने काव्य ,नाटक ,कहानी ,उपन्यास तथा निबंध आदि साहित्य की हर बिधा में लेखनी चलायी तथा सभी क्षेत्र में सफलता प्राप्त की । मूलतः ये कवि थे। इनकी प्रमुख रचनाये है:
कविताये:महाराणा का मह्त्व, चित्राधार ,कानन-कुसुम ,लहर ,झरना ,आंसू ,करुणालय और कामायनी ।
नाटक: अजातशत्रु ,एक घूंट ,चन्द्रगुप्त ,स्कंदगुप्त और धुवास्वामिनी
कहानी -संग्रह : छाया,प्रतिध्वनि ,आंधी,आकाशदीप और इंद्रजाल ।
उपन्यास : कंकाल ,तितली ,इरावती (अपूर्ण )
निबंध संग्रह : काव्य कला तथा अन्य निबंध।
नाटय विधा में इच्छित अभिनय के चार भेद होते हैं 1.आंगिक 2.वाचिक 3. आहार्य 4. सात्विक. आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टाएं आंगिक या कायिक अनुभाव है. रति भाव के जाग्रत होने पर भू-विक्षेप, कटाक्ष आदि प्रयत्न पूर्वक किये गये वाग्व्यापार वाचिक अनुभाव हैं. आरोपित या कृत्रिम वेष-रचना आहार्य अनुभाव है। परंतु, स्थायी भाव के जाग्रत होने पर स्वाभाविक, अकृत्रिम, अयत्नज, अंगविकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं. इसके लिए आश्रय को कोई बाह्य चेष्टा नहीं करनी पड़ती.
आंगिक वि० [सं० अंग+ठक्-इक] १. अंग या अंगो से संबंध रखनेवाला। २. शारीरिक क्रियाओं, चेष्टाओं या संकेतों द्वारा अभिव्यक्त होनेवाला। जैसे—आंगिक अनुबाव आंगिक अभिनय आदि। ३. दे० ‘कायिक’। पुं० वह जो मृदंग बजाता हो। पखावजी।
भरत ने चार प्रकार का अभिनय माना है---आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। आंगिक अभिनय का अर्थ है शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना। सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पार्श्व, और चरण द्वारा किया जानेवाला अभिनय या आंगिक अभिनय कहलाता है
अभिनेता रंगमंच पर जो कुछ मुख से कहता है वह सबका सब वाचिक अभिनय कहलाता है। साहित्य में तो हम लोग व्याकृता वाणी ही ग्रहण करते हैं, किंतु नाटक में अव्याकृता वाणी का भी प्रयोग किया जा सकता है।
आहार्य अभिनय वास्तव में अभिनय का अंग न होकर नेपथ्यकर्म का अंग है और उसका संबंध अभिनेता से उतना नहीं है जितना नेपथ्यसज्जा करनेवाले से। किंतु आज के सभी प्रमुख अभिनेता और नाट्यप्रयोक्ता यह मानने लगे हैं कि प्रत्येक अभिनेता को अपनी मुखसज्जा और रूपसज्जा स्वयं करनी चाहिए।
सात्विक अभिनय तो उन भावों का वास्तविक और हार्दिक अभिनय है जिन्हें रस सिद्धांतवाले सात्विक भाव कहते हैं और जिसके अंतर्गत, स्वेद, स्तंभ, कंप, अश्रु, वैवर्ण्य, रोमांच, स्वरभंग और प्रलय की गणना होती है।
पूछे गये प्रश्नों के उत्तर क्रमानुसार निम्नवत है ;
1. उपरोक्त पद्यांश जयशंकर प्रसाद रचित ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा’ सर्ग से उद्धृत है. इस पद्यांश में जलप्लावन के पश्चात श्रद्धा का मनु से साक्षात्कार का वर्णन है. श्रद्धा, मनु के सौन्दर्य को देखकर अभिभूत हो जाती है और उनके साधना (एकांतवास) पर प्रश्न खड़े कर देती है. वह उनके सौन्दर्य को निरख रही है. उनका शरीर गान्धार देश के हिरणों के चर्म से ढका हुआ था. नीले वस्त्रों के बीच से झाकता उनका सौन्दर्य अद्भुत नज़र आ रहा था मानों बिजली के फूल आसमान में खिल उठे हों. और फिर पश्चिम आकाश के बादलों से युक्त होने पर जो छटा दिखती है वही तो यहाँ भी दिखलाई दे रहा है. सूर्य रश्मियाँ मानो बादलों के बीच से झाक रही हों.
2. रचयिता : जयशंकर प्रसाद, जिनका का जन्म 1878 ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में हुआ था. इनकी अमर कृति ‘कामायनी’ में अंतर्द्वन्द का एक विराट और सूक्ष्म विस्तार दिखता है. उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं।
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
3. आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। आंगिक अभिनय का अर्थ है शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना। सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पार्श्व, और चरण द्वारा किया जानेवाला अभिनय या आंगिक अभिनय कहलाता है और आँख, भौंह, अधर, कपोल और ठोढ़ी से किया हुआ मुखज अभिनय, उपांग अभिनय कहलाता है।
पूछे गये प्रश्नों के उत्तर क्रमानुसार निम्नवत है ;
1. उपरोक्त पद्यांश जयशंकर प्रसाद रचित ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा’ सर्ग से उद्धृत है. इस पद्यांश में जलप्लावन के पश्चात श्रद्धा का मनु से साक्षात्कार का वर्णन है. श्रद्धा, मनु के सौन्दर्य को देखकर अभिभूत हो जाती है और उनके साधना (एकांतवास) पर प्रश्न खड़े कर देती है. वह उनके सौन्दर्य को निरख रही है. उनका शरीर गान्धार देश के हिरणों के चर्म से ढका हुआ था. नीले वस्त्रों के बीच से झाकता उनका सौन्दर्य अद्भुत नज़र आ रहा था मानों बिजली के फूल आसमान में खिल उठे हों. और फिर पश्चिम आकाश के बादलों से युक्त होने पर जो छटा दिखती है वही तो यहाँ भी दिखलाई दे रहा है. सूर्य रश्मियाँ मानो बादलों के बीच से झाक रही हों.
2. रचयिता : जयशंकर प्रसाद, जिनका का जन्म 1878 ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में हुआ था. इनकी अमर कृति ‘कामायनी’ में अंतर्द्वन्द का एक विराट और सूक्ष्म विस्तार दिखता है. उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं।
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
3. आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। आंगिक अभिनय का अर्थ है शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना। सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पार्श्व, और चरण द्वारा किया जानेवाला अभिनय या आंगिक अभिनय कहलाता है और आँख, भौंह, अधर, कपोल और ठोढ़ी से किया हुआ मुखज अभिनय, उपांग अभिनय कहलाता है।
पूछे गये प्रश्नों के उत्तर क्रमानुसार निम्नवत है ;
1. उपरोक्त पद्यांश जयशंकर प्रसाद रचित ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा’ सर्ग से उद्धृत है. इस पद्यांश में जलप्लावन के पश्चात श्रद्धा का मनु से साक्षात्कार का वर्णन है. श्रद्धा, मनु के सौन्दर्य को देखकर अभिभूत हो जाती है और उनके साधना (एकांतवास) पर प्रश्न खड़े कर देती है. वह उनके सौन्दर्य को निरख रही है. उनका शरीर गान्धार देश के हिरणों के चर्म से ढका हुआ था. नीले वस्त्रों के बीच से झाकता उनका सौन्दर्य अद्भुत नज़र आ रहा था मानों बिजली के फूल आसमान में खिल उठे हों. और फिर पश्चिम आकाश के बादलों से युक्त होने पर जो छटा दिखती है वही तो यहाँ भी दिखलाई दे रहा है. सूर्य रश्मियाँ मानो बादलों के बीच से झाक रही हों.
2. रचयिता : जयशंकर प्रसाद, जिनका का जन्म 1878 ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में हुआ था. इनकी अमर कृति ‘कामायनी’ में अंतर्द्वन्द का एक विराट और सूक्ष्म विस्तार दिखता है. उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं।
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
3. आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। आंगिक अभिनय का अर्थ है शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना। सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पार्श्व, और चरण द्वारा किया जानेवाला अभिनय या आंगिक अभिनय कहलाता है और आँख, भौंह, अधर, कपोल और ठोढ़ी से किया हुआ मुखज अभिनय, उपांग अभिनय कहलाता है।
पूछे गये प्रश्नों के उत्तर क्रमानुसार निम्नवत है ;
1. उपरोक्त पद्यांश जयशंकर प्रसाद रचित ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा’ सर्ग से उद्धृत है. इस पद्यांश में जलप्लावन के पश्चात श्रद्धा का मनु से साक्षात्कार का वर्णन है. श्रद्धा, मनु के सौन्दर्य को देखकर अभिभूत हो जाती है और उनके साधना (एकांतवास) पर प्रश्न खड़े कर देती है. वह उनके सौन्दर्य को निरख रही है. उनका शरीर गान्धार देश के हिरणों के चर्म से ढका हुआ था. नीले वस्त्रों के बीच से झाकता उनका सौन्दर्य अद्भुत नज़र आ रहा था मानों बिजली के फूल आसमान में खिल उठे हों. और फिर पश्चिम आकाश के बादलों से युक्त होने पर जो छटा दिखती है वही तो यहाँ भी दिखलाई दे रहा है. सूर्य रश्मियाँ मानो बादलों के बीच से झाक रही हों.
2. रचयिता : जयशंकर प्रसाद, जिनका का जन्म 1878 ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में हुआ था. इनकी अमर कृति ‘कामायनी’ में अंतर्द्वन्द का एक विराट और सूक्ष्म विस्तार दिखता है. उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं।
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
3. आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। आंगिक अभिनय का अर्थ है शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना। सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पार्श्व, और चरण द्वारा किया जानेवाला अभिनय या आंगिक अभिनय कहलाता है और आँख, भौंह, अधर, कपोल और ठोढ़ी से किया हुआ मुखज अभिनय, उपांग अभिनय कहलाता है।
पूछे गये प्रश्नों के उत्तर क्रमानुसार निम्नवत है ;
1. उपरोक्त पद्यांश जयशंकर प्रसाद रचित ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा’ सर्ग से उद्धृत है. इस पद्यांश में जलप्लावन के पश्चात श्रद्धा का मनु से साक्षात्कार का वर्णन है. श्रद्धा, मनु के सौन्दर्य को देखकर अभिभूत हो जाती है और उनके साधना (एकांतवास) पर प्रश्न खड़े कर देती है. वह उनके सौन्दर्य को निरख रही है. उनका शरीर गान्धार देश के हिरणों के चर्म से ढका हुआ था. नीले वस्त्रों के बीच से झाकता उनका सौन्दर्य अद्भुत नज़र आ रहा था मानों बिजली के फूल आसमान में खिल उठे हों. और फिर पश्चिम आकाश के बादलों से युक्त होने पर जो छटा दिखती है वही तो यहाँ भी दिखलाई दे रहा है. सूर्य रश्मियाँ मानो बादलों के बीच से झाक रही हों.
2. रचयिता : जयशंकर प्रसाद, जिनका का जन्म 1878 ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में हुआ था. इनकी अमर कृति ‘कामायनी’ में अंतर्द्वन्द का एक विराट और सूक्ष्म विस्तार दिखता है. उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं।
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
3. आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। आंगिक अभिनय का अर्थ है शरीर, मुख और चेष्टाओं से कोई भाव या अर्थ प्रकट करना। सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पार्श्व, और चरण द्वारा किया जानेवाला अभिनय या आंगिक अभिनय कहलाता है और आँख, भौंह, अधर, कपोल और ठोढ़ी से किया हुआ मुखज अभिनय, उपांग अभिनय कहलाता है।
पता नहीं उत्तर के विस्तार के कारण या जाने क्यूँ टिप्पणी नहीं प्रेषित हो पा रही है. इसे इमेल से भेजने का प्रयास करता हूँ
इसके रचयिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए
-श्रद्धा / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
महाकवि के रूप में सुविख्यात जयशंकर प्रसाद (१८८९-१९३७) हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। तितली, कंकाल और इरावती जैसे उपन्यास और आकाशदीप, मधुआ और पुरस्कार जैसी कहानियाँ उनके गद्य लेखन की अपूर्व ऊँचाइयाँ हैं। काव्य साहित्य में कामायनी बेजोड कृति है। कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में वे अनुपम थे। आपके पाँच कहानी-संग्रह, तीन उपन्यास और लगभग बारह काव्य-ग्रन्थ हैं
जयशंकर प्रसाद छायावाद के चतुःस्तंभों पन्त, महादेवी, पन्त तथा प्रसाद में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य की काव्य, नाटक, कहानी तथा निबंध विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यहाँ मैं इनके जीवन तथा रचना संसार से संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर रहा हूँ-
जयशंकर प्रसाद का जन्म १८७८ ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में पिता श्री देवी प्रसाद साहू के घर में हुआ था जो एक अत्यन्त समृद्ध व्यवसायी थे। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई तथा संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा उर्दू के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त हुए। इसके उपरांत वाराणसी के क्वींस इंटर कॉलेज में अध्ययन किया। इनका विपुल ज्ञान इनकी स्वाध्याय की प्रवृति थी और अपने अध्यवसायी गुण के कारण छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भ बने तथा हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं के रूप में कई अनमोल रत्न प्रदान किए।
सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझ आन पड़ा। गृह कलह में साडी समृद्धि जाती रही। इन्ही परिस्थितियों ने प्रसाद के कवि व्यक्तित्व को उभारा। १५ नवम्बर १९३७ को इस महान रचनाकार की लेखनी ने जीवन के साथ विराम ले लिया।
'कामायनी' जैसे महाकाव्य के रचयिता प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वद्व का जो रूप दिखाई पड़ता है वह इनकी लेखनी का मौलिक गुण है। इनके नाटकों तथा कहानियो में भी यह अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। इनकी अधिकांश रचनाएँ इतिहास तथा कल्पना के समन्वय पर आधारित हैं तथा प्रत्येक काल के यथार्थ को गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती हैं। उनकी रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त उनकी रचनाएँ प्रसाद की अनुभूति और चिंतन के दर्शन कराती हैं। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत है-
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
निबंध संग्रह- काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य की सभी महत्वपूर्ण विधाओं में इनकी रचनाएँ इनकी प्रखर सृजनशीलता का प्रमाण हैं। प्रसाद छायावाद ही नही वरन हिन्दी साहित्याकाश में अनवरत चमकते नक्षत्र हैं। इनके द्वारा सृजित इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती हैं।
जयशंकर प्रसाद छायावाद के चतुःस्तंभों पन्त, महादेवी, पन्त तथा प्रसाद में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य की काव्य, नाटक, कहानी तथा निबंध विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यहाँ मैं इनके जीवन तथा रचना संसार से संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर रहा हूँ-
जयशंकर प्रसाद का जन्म १८७८ ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में पिता श्री देवी प्रसाद साहू के घर में हुआ था जो एक अत्यन्त समृद्ध व्यवसायी थे। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई तथा संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा उर्दू के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त हुए। इसके उपरांत वाराणसी के क्वींस इंटर कॉलेज में अध्ययन किया। इनका विपुल ज्ञान इनकी स्वाध्याय की प्रवृति थी और अपने अध्यवसायी गुण के कारण छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भ बने तथा हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं के रूप में कई अनमोल रत्न प्रदान किए।
सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझ आन पड़ा। गृह कलह में साडी समृद्धि जाती रही। इन्ही परिस्थितियों ने प्रसाद के कवि व्यक्तित्व को उभारा। १५ नवम्बर १९३७ को इस महान रचनाकार की लेखनी ने जीवन के साथ विराम ले लिया।
'कामायनी' जैसे महाकाव्य के रचयिता प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वद्व का जो रूप दिखाई पड़ता है वह इनकी लेखनी का मौलिक गुण है। इनके नाटकों तथा कहानियो में भी यह अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। इनकी अधिकांश रचनाएँ इतिहास तथा कल्पना के समन्वय पर आधारित हैं तथा प्रत्येक काल के यथार्थ को गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती हैं। उनकी रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त उनकी रचनाएँ प्रसाद की अनुभूति और चिंतन के दर्शन कराती हैं। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत है-
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
निबंध संग्रह- काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य की सभी महत्वपूर्ण विधाओं में इनकी रचनाएँ इनकी प्रखर सृजनशीलता का प्रमाण हैं। प्रसाद छायावाद ही नही वरन हिन्दी साहित्याकाश में अनवरत चमकते नक्षत्र हैं। इनके द्वारा सृजित इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती हैं।
जयशंकर प्रसाद छायावाद के चतुःस्तंभों पन्त, महादेवी, पन्त तथा प्रसाद में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य की काव्य, नाटक, कहानी तथा निबंध विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यहाँ मैं इनके जीवन तथा रचना संसार से संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर रहा हूँ-
जयशंकर प्रसाद का जन्म १८७८ ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में पिता श्री देवी प्रसाद साहू के घर में हुआ था जो एक अत्यन्त समृद्ध व्यवसायी थे। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई तथा संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा उर्दू के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त हुए। इसके उपरांत वाराणसी के क्वींस इंटर कॉलेज में अध्ययन किया। इनका विपुल ज्ञान इनकी स्वाध्याय की प्रवृति थी और अपने अध्यवसायी गुण के कारण छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भ बने तथा हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं के रूप में कई अनमोल रत्न प्रदान किए।
सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझ आन पड़ा। गृह कलह में साडी समृद्धि जाती रही। इन्ही परिस्थितियों ने प्रसाद के कवि व्यक्तित्व को उभारा। १५ नवम्बर १९३७ को इस महान रचनाकार की लेखनी ने जीवन के साथ विराम ले लिया।
'कामायनी' जैसे महाकाव्य के रचयिता प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वद्व का जो रूप दिखाई पड़ता है वह इनकी लेखनी का मौलिक गुण है। इनके नाटकों तथा कहानियो में भी यह अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। इनकी अधिकांश रचनाएँ इतिहास तथा कल्पना के समन्वय पर आधारित हैं तथा प्रत्येक काल के यथार्थ को गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती हैं। उनकी रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त उनकी रचनाएँ प्रसाद की अनुभूति और चिंतन के दर्शन कराती हैं। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत है-
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
निबंध संग्रह- काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य की सभी महत्वपूर्ण विधाओं में इनकी रचनाएँ इनकी प्रखर सृजनशीलता का प्रमाण हैं। प्रसाद छायावाद ही नही वरन हिन्दी साहित्याकाश में अनवरत चमकते नक्षत्र हैं। इनके द्वारा सृजित इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती हैं।
जयशंकर प्रसाद छायावाद के चतुःस्तंभों पन्त, महादेवी, पन्त तथा प्रसाद में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य की काव्य, नाटक, कहानी तथा निबंध विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
जयशंकर प्रसाद का जन्म १८७८ ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में पिता श्री देवी प्रसाद साहू के घर में हुआ था जो एक अत्यन्त समृद्ध व्यवसायी थे। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई तथा संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा उर्दू के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त हुए। इसके उपरांत वाराणसी के क्वींस इंटर कॉलेज में अध्ययन किया। इनका विपुल ज्ञान इनकी स्वाध्याय की प्रवृति थी और अपने अध्यवसायी गुण के कारण छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भ बने तथा हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं के रूप में कई अनमोल रत्न प्रदान किए।
सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझ आन पड़ा। गृह कलह में साडी समृद्धि जाती रही। इन्ही परिस्थितियों ने प्रसाद के कवि व्यक्तित्व को उभारा। १५ नवम्बर १९३७ को इस महान रचनाकार की लेखनी ने जीवन के साथ विराम ले लिया।
'कामायनी' जैसे महाकाव्य के रचयिता प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वद्व का जो रूप दिखाई पड़ता है वह इनकी लेखनी का मौलिक गुण है। इनके नाटकों तथा कहानियो में भी यह अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। इनकी अधिकांश रचनाएँ इतिहास तथा कल्पना के समन्वय पर आधारित हैं तथा प्रत्येक काल के यथार्थ को गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती हैं। उनकी रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त उनकी रचनाएँ प्रसाद की अनुभूति और चिंतन के दर्शन कराती हैं। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत है-
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
निबंध संग्रह- काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य की सभी महत्वपूर्ण विधाओं में इनकी रचनाएँ इनकी प्रखर सृजनशीलता का प्रमाण हैं। प्रसाद छायावाद ही नही वरन हिन्दी साहित्याकाश में अनवरत चमकते नक्षत्र हैं। इनके द्वारा सृजित इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती हैं।
जयशंकर प्रसाद का जन्म १८७८ ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में पिता श्री देवी प्रसाद साहू के घर में हुआ था जो एक अत्यन्त समृद्ध व्यवसायी थे। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई तथा संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा उर्दू के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त हुए। इसके उपरांत वाराणसी के क्वींस इंटर कॉलेज में अध्ययन किया। इनका विपुल ज्ञान इनकी स्वाध्याय की प्रवृति थी और अपने अध्यवसायी गुण के कारण छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भ बने तथा हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं के रूप में कई अनमोल रत्न प्रदान किए।
सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझ आन पड़ा। गृह कलह में साडी समृद्धि जाती रही। इन्ही परिस्थितियों ने प्रसाद के कवि व्यक्तित्व को उभारा। १५ नवम्बर १९३७ को इस महान रचनाकार की लेखनी ने जीवन के साथ विराम ले लिया।
'कामायनी' जैसे महाकाव्य के रचयिता प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वद्व का जो रूप दिखाई पड़ता है वह इनकी लेखनी का मौलिक गुण है। इनके नाटकों तथा कहानियो में भी यह अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। इनकी अधिकांश रचनाएँ इतिहास तथा कल्पना के समन्वय पर आधारित हैं तथा प्रत्येक काल के यथार्थ को गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती हैं। उनकी रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त उनकी रचनाएँ प्रसाद की अनुभूति और चिंतन के दर्शन कराती हैं।
इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत है-
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
निबंध संग्रह- काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य की सभी महत्वपूर्ण विधाओं में इनकी रचनाएँ इनकी प्रखर सृजनशीलता का प्रमाण हैं। प्रसाद छायावाद ही नही वरन हिन्दी साहित्याकाश में अनवरत चमकते नक्षत्र हैं। इनके द्वारा सृजित इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती हैं।
सादर अभिनन्दन - मैंने पहेली का जवाब कुछ यूं लिखा --
१)प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तिया सुविख्यात महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की रचना का कामायनी का अंश कविता श्रद्धा है |इस कविता में प्रलय के बाद पुनः सृष्टि के सृजन का सुन्दर वर्णन है | आसमान में मेघो की ख़ूबसूरती का वर्णन है |
भावार्थ - सुन्दर कोमल मेघ ऐसे लग रहे है जैसे मेष के नीले काले बाल घुमड़ रहे है| और रोशनी उसके सुन्दर शरीर को यूं ढक रहे हैं जैसे उसका (मेघो ) का आवरण /कोट हों |और नीले परिधानों के बीच कभी यूं लगता जैसे सुन्दर कुमार की अधखुली देह का भाग हो |और कभी बिजली यूं लगती जैसे इन बादलो के के बीच सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो | आहा कितना सुन्दर लगता है जब पश्चिम दिशा में आसमान के बीच में घने काले बदल घिर रहे हो और पूरब दिशा से आती हुवी सूर्य की किरणों के पुंज बादलों से गुजर रहे हो तो नानाप्रकार की छवियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं या फिर ऐसा लगता जैसे कि कोई नयी नीलमणी से कान्ति फूटती धधकती दिखाई दे रही हो या कोई सुप्त ज्वालामुखी रात में बिना थके पड़ा हो |
२)कवि - जयशंकर प्रसाद जी हिंदी जगत के महान कवि लेखक हुवे |महाकवि के रूप में सुविख्यात कवि जयशंकर प्रसाद जी का जन्म ३० जनवरी १८९० को वाराणसी में हुवा था । बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी ने कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि के क्षेत्रों में लेखनी चलायी | कहानी संग्रह - प्रतिध्वनी , आकाशदीप आदि,; कविता संग्रह - कानन कुसुम , झरना , कामायनी आदि ;नाटक - स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त उंयास - तितली , झरना आदि | छायावादी युग के महान चार साहित्यकारों में से एक थे | १४ जनवरी १९३७ को देहांत हुवा |
३) आंगिक- भावभंगिमा , भावनाओं को शारीरिक तौर पर स्वीकार करना
2) वाचिक - शाब्दिक , मुह्जुबानी
3) सात्विक - धर्मपरायण, शुद्ध
4)आहार्य - स्वीकार योग्य ,ग्राह्य
सादर अभिनन्दन - मैंने पहेली का जवाब कुछ यूं लिखा --
१)प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तिया सुविख्यात महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की रचना का कामायनी का अंश कविता श्रद्धा है |इस कविता में प्रलय के बाद पुनः सृष्टि के सृजन का सुन्दर वर्णन है | आसमान में मेघो की ख़ूबसूरती का वर्णन है |
भावार्थ - सुन्दर कोमल मेघ ऐसे लग रहे है जैसे मेष के नीले काले बाल घुमड़ रहे है| और रोशनी उसके सुन्दर शरीर को यूं ढक रहे हैं जैसे उसका (मेघो ) का आवरण /कोट हों |और नीले परिधानों के बीच कभी यूं लगता जैसे सुन्दर कुमार की अधखुली देह का भाग हो |और कभी बिजली यूं लगती जैसे इन बादलो के के बीच सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो | आहा कितना सुन्दर लगता है जब पश्चिम दिशा में आसमान के बीच में घने काले बदल घिर रहे हो और पूरब दिशा से आती हुवी सूर्य की किरणों के पुंज बादलों से गुजर रहे हो तो नानाप्रकार की छवियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं या फिर ऐसा लगता जैसे कि कोई नयी नीलमणी से कान्ति फूटती धधकती दिखाई दे रही हो या कोई सुप्त ज्वालामुखी रात में बिना थके पड़ा हो |
२)कवि - जयशंकर प्रसाद जी हिंदी जगत के महान कवि लेखक हुवे |महाकवि के रूप में सुविख्यात कवि जयशंकर प्रसाद जी का जन्म ३० जनवरी १८९० को वाराणसी में हुवा था । बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी ने कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि के क्षेत्रों में लेखनी चलायी | कहानी संग्रह - प्रतिध्वनी , आकाशदीप आदि,; कविता संग्रह - कानन कुसुम , झरना , कामायनी आदि ;नाटक - स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त उंयास - तितली , झरना आदि | छायावादी युग के महान चार साहित्यकारों में से एक थे | १४ जनवरी १९३७ को देहांत हुवा |
३) आंगिक- भावभंगिमा , भावनाओं को शारीरिक तौर पर स्वीकार करना
2) वाचिक - शाब्दिक , मुह्जुबानी
3) सात्विक - धर्मपरायण, शुद्ध
4)आहार्य - स्वीकार योग्य ,ग्राह्य
सादर अभिनन्दन -
१)प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तिया सुविख्यात महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की रचना का कामायनी का अंश कविता श्रद्धा है |इस कविता में प्रलय के बाद पुनः सृष्टि के सृजन का सुन्दर वर्णन है | आसमान में मेघो की ख़ूबसूरती का वर्णन है |
भावार्थ - सुन्दर कोमल मेघ ऐसे लग रहे है जैसे मेष के नीले काले बाल घुमड़ रहे है| और रोशनी उसके सुन्दर शरीर को यूं ढक रहे हैं जैसे उसका (मेघो ) का आवरण /कोट हों |और नीले परिधानों के बीच कभी यूं लगता जैसे सुन्दर कुमार की अधखुली देह का भाग हो |और कभी बिजली यूं लगती जैसे इन बादलो के के बीच सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो | आहा कितना सुन्दर लगता है जब पश्चिम दिशा में आसमान के बीच में घने काले बदल घिर रहे हो और पूरब दिशा से आती हुवी सूर्य की किरणों के पुंज बादलों से गुजर रहे हो तो नानाप्रकार की छवियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं या फिर ऐसा लगता जैसे कि कोई नयी नीलमणी से कान्ति फूटती धधकती दिखाई दे रही हो या कोई सुप्त ज्वालामुखी रात में बिना थके पड़ा हो |
२)कवि - जयशंकर प्रसाद जी हिंदी जगत के महान कवि लेखक हुवे |महाकवि के रूप में सुविख्यात कवि जयशंकर प्रसाद जी का जन्म ३० जनवरी १८९० को वाराणसी में हुवा था । बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी ने कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि के क्षेत्रों में लेखनी चलायी | कहानी संग्रह - प्रतिध्वनी , आकाशदीप आदि,; कविता संग्रह - कानन कुसुम , झरना , कामायनी आदि ;नाटक - स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त उंयास - तितली , झरना आदि | छायावादी युग के महान चार साहित्यकारों में से एक थे | १४ जनवरी १९३७ को देहांत हुवा |
३) आंगिक- भावभंगिमा , भावनाओं को शारीरिक तौर पर स्वीकार करना
वाचिक - शाब्दिक , मुह्जुबानी
सात्विक - धर्मपरायण, शुद्ध
आहार्य - स्वीकार योग्य ,ग्राह्य
धन्यवाद !!
सादर अभिनन्दन -
१)प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तिया सुविख्यात महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की रचना का कामायनी का अंश कविता श्रद्धा है |इस कविता में प्रलय के बाद पुनः सृष्टि के सृजन का सुन्दर वर्णन है | आसमान में मेघो की ख़ूबसूरती का वर्णन है |
भावार्थ - सुन्दर कोमल मेघ ऐसे लग रहे है जैसे मेष के नीले काले बाल घुमड़ रहे है| और रोशनी उसके सुन्दर शरीर को यूं ढक रहे हैं जैसे उसका (मेघो ) का आवरण /कोट हों |और नीले परिधानों के बीच कभी यूं लगता जैसे सुन्दर कुमार की अधखुली देह का भाग हो |और कभी बिजली यूं लगती जैसे इन बादलो के के बीच सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो | आहा कितना सुन्दर लगता है जब पश्चिम दिशा में आसमान के बीच में घने काले बदल घिर रहे हो और पूरब दिशा से आती हुवी सूर्य की किरणों के पुंज बादलों से गुजर रहे हो तो नानाप्रकार की छवियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं या फिर ऐसा लगता जैसे कि कोई नयी नीलमणी से कान्ति फूटती धधकती दिखाई दे रही हो या कोई सुप्त ज्वालामुखी रात में बिना थके पड़ा हो |
२)कवि - जयशंकर प्रसाद जी हिंदी जगत के महान कवि लेखक हुवे |महाकवि के रूप में सुविख्यात कवि जयशंकर प्रसाद जी का जन्म ३० जनवरी १८९० को वाराणसी में हुवा था । बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी ने कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि के क्षेत्रों में लेखनी चलायी | कहानी संग्रह - प्रतिध्वनी , आकाशदीप आदि,; कविता संग्रह - कानन कुसुम , झरना , कामायनी आदि ;नाटक - स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त उंयास - तितली , झरना आदि | छायावादी युग के महान चार साहित्यकारों में से एक थे | १४ जनवरी १९३७ को देहांत हुवा |
३) आंगिक- भावभंगिमा , भावनाओं को शारीरिक तौर पर स्वीकार करना
वाचिक - शाब्दिक , मुह्जुबानी
सात्विक - धर्मपरायण, शुद्ध
आहार्य - स्वीकार योग्य ,ग्राह्य
धन्यवाद !!
सादर अभिनन्दन -
१)प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तिया सुविख्यात महाकवि जयशंकर प्रसाद जी की रचना का कामायनी का अंश कविता श्रद्धा है |इस कविता में प्रलय के बाद पुनः सृष्टि के सृजन का सुन्दर वर्णन है | आसमान में मेघो की ख़ूबसूरती का वर्णन है |
भावार्थ - सुन्दर कोमल मेघ ऐसे लग रहे है जैसे मेष के नीले काले बाल घुमड़ रहे है| और रोशनी उसके सुन्दर शरीर को यूं ढक रहे हैं जैसे उसका (मेघो ) का आवरण /कोट हों |और नीले परिधानों के बीच कभी यूं लगता जैसे सुन्दर कुमार की अधखुली देह का भाग हो |और कभी बिजली यूं लगती जैसे इन बादलो के के बीच सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो | आहा कितना सुन्दर लगता है जब पश्चिम दिशा में आसमान के बीच में घने काले बदल घिर रहे हो और पूरब दिशा से आती हुवी सूर्य की किरणों के पुंज बादलों से गुजर रहे हो तो नानाप्रकार की छवियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं या फिर ऐसा लगता जैसे कि कोई नयी नीलमणी से कान्ति फूटती धधकती दिखाई दे रही हो या कोई सुप्त ज्वालामुखी रात में बिना थके पड़ा हो |
२)कवि - जयशंकर प्रसाद जी हिंदी जगत के महान कवि लेखक हुवे |महाकवि के रूप में सुविख्यात कवि जयशंकर प्रसाद जी का जन्म ३० जनवरी १८९० को वाराणसी में हुवा था । बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी ने कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि के क्षेत्रों में लेखनी चलायी | कहानी संग्रह - प्रतिध्वनी , आकाशदीप आदि,; कविता संग्रह - कानन कुसुम , झरना , कामायनी आदि ;नाटक - स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त उंयास - तितली , झरना आदि | छायावादी युग के महान चार साहित्यकारों में से एक थे | १४ जनवरी १९३७ को देहांत हुवा |
३) आंगिक- भावभंगिमा , भावनाओं को शारीरिक तौर पर स्वीकार करना
वाचिक - शाब्दिक , मुह्जुबानी
सात्विक - धर्मपरायण, शुद्ध
आहार्य - स्वीकार योग्य ,ग्राह्य
धन्यवाद !!
यह पद्यांश श्री जयशंकर प्रसाद रचित कामायनी के श्रद्धा सर्ग से लिया गया है. जिसमें जयशंकर जी श्रद्धा के बाह्य शरीर को उसके ह्रदय की अनुकृ्ति बतलाते हैं. मधु पवन से क्रीडित शाल वृ्क्ष की ही भान्ती श्रद्धा की मूर्ती शोभायुक्त एवं गान्धार देश के स्निग्ध नीले रोम वाले मेषों के चर्म उसके कान्त विपु को आच्छादित कर रहे थे जो कि एक आवरण के समान था.
उस आवरण में कवि नें नील परिधान के बीच श्रद्धा के अधखुले गोरे अंग के लिए श्याम मेघों के बीच गुलाबी रंग के बिजली के फूल की कल्पना करते हुए श्याम और गुलाबी वर्णछटाओं की योजना की है.
अन्तिम पंक्तियों में कवि नें उसके लिए बादलों के बीच पश्चिम में डूबते हुए सूर्य जैसे अरूणाभ मुख मंडल की कल्पना की है. अर्थात कामायनी के मनु को श्रद्धा का मुख 'अरूण-रवि-मंडल' सदृ्श दिखाई देता है....
महाकवि के रूप में सुविख्यात श्री जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं. जो कि छायावादी कविता के चार प्रमुख स्तंभों में से एक स्तम्भ माने जाते हैं. जिन्होने अपनी विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन किया. तितली, कंकाल और इरावती जैसे उपन्यास और आकाशदीप, मधुआ और पुरस्कार जैसी कहानियाँ उनके गद्य लेखन की अपूर्व ऊँचाइयाँ हैं. काव्य साहित्य में 'कामायनी' अप्रतिम, बेजोड कृति है. कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है. भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में वे अनुपम थे. आपके पाँच कहानी-संग्रह, तीन उपन्यास और लगभग बारह काव्य-ग्रन्थ हैं.
अमर भारती की गोल्डन जुबली पर बहुत बहुत बधाई ...
प्रस्तुत पद्यांश जयशंकर प्रसाद की कामायनी के श्रृद्धा सर्ग से लिया है ...इसमें कवि ने नायिका के सौंदर्य का वर्णन किया है ..जिस प्रकार बादलों के बीच सूर्य की आभा दिखती है उसी प्रकार नीले परिधानों के बीच उसका सौंदर्य परिलक्षित हो रहा है ..
जयशंकर प्रसाद जी का जन्म वाराणसी में १८७८ को हुआ था .. और १९३७ नवंबर में इन्होने इस दुनिया से विदा ले ली थी .छायावाद के स्तंभ माने जाते हैं ..कामायनी महाकाव्य लिखा ..हर विधा में इनकी रचनाये हैं ..
काव्य में कामायनी , आंसू , प्रेम पथिक , करुणालय , लहर ...
नाटक में ... विशाख , जनमेजय ,सज्जन , कल्याणी परिणति, एक घूँट , आदि
उपन्यास ...तितली , कंकाल , इरावती
कथा संग्रह ..आकाशदीप ,आंधी , इंद्रजाल ,छाया .आदि ,
इन्होने निबंध भी लिखे हैं ..
तीसरे प्रश्न का उत्तर ...नाटक करते हुए जो हाव भाव और वेश भूषा का प्रभाव पड़ता है उसके लिए कहा जाता है ..
आंगिक ...अंगों द्वारा जो प्रस्तुति होती है
वाचिक ..जो बोलने से प्रभाव पड़ता है ..संवाद बोलने जो प्रभाव पड़ता है ..
सात्विक ...जिस किरदार को निबाहते हुए कलाकार उसी रूप में खो जाता है और उस चरित्र का जो प्रभाव पड़ता है जैसे कंपन होना पसीना आ जाना , रोना , हंसना आदि
आहारी ..जिस किरदार को निबाह रहे हैं उसीके अनुरूप जो वेश भूषा होती है उसका प्रभाव ...
अब कहाँ तक सही है नहीं मालूम :):)
1- सन्दर्भ सहित इस पद्यांश की व्याख्या कीजिए!
यह कामायनी के श्रद्धा सर्ग से लिया गया पद्यांश है जो जल प्रलय से संबंधित है.
कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक,
कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?
मधुर विश्रांत और एकांत-जगत का सुलझा हुआ रहस्य,
एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य"
2- इसके रचयिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए!
महाकवि जयशंकर प्रसाद ( 1889 - 1937)जन्म: 30 जनवरी को वाराणसी में,
कंकाल, तितली, और इरावती जैसे उपन्यास एवम मधुआ, आकाशदीप, और पुरस्कार
जैसी कहानियाँ उनके उत्कृष्ट गद्य लेखन की साक्षी हैं.
छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक प्रमुख स्तंभ श्री जयशंकर साहु तंबाकू एवम सुंघनी
का व्यापार किया करते थे और इसी वजह से इनके परिवार को वाराणसी में सुंघनी साहु के नाम से
जाना जाता था.
3- आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य क्या होता है?
यह चारों ही नाट्य विधा से संबंध रखने वाली विधाएं हैं.
आंगिक - यह अंग संचालन से संबंध रखती है.
वाचिक - यह संवाद बोलने से संबंध रखती है (डायलाग डिलिवरी)
सात्विक - यह विधा तत्व को दर्शाती है.
आहार्य - यह वेषभूषा से संबंध रखती है.
रामराम
@ दर्शन लाल बवेजा जी!
आपकी तो बहुत सी टिप्पणियाँ
इस पहेली पर आ चुकी हैं!
--
इसके अतिरिक्त
अब तक 30 टिप्पणियाँ तो आ चुकी हैं!
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (27/9/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
सुश्री अमरभारती जी को जन्मदिन की अग्रिम बधाई एवम शुभकामनाएं.
रामराम
ye shri jaishankar prasad ji ki kavita hai.isme shrdha ji ki sundarta ka varnan kiya gya hai.
abhi itna hi baad me detail mein likhenge.
नमस्कार
जयशंकर प्रसाद जी को पढने वाले के लिए ये बहुत कठिन नहीं है पर ये समझ नहीं आया कि सन्दर्भ सहित व्याख्या की क्या आवश्यकता पड़ गई. फिर भी एक प्रयास है
प्रस्तुत पद्यांश में कवि श्रृद्धा की अलौकिक सुन्दरता का चित्रण कर रहा है जिसमें पहले पद में कवि का कहना है कि गांधार देश में पाए जाने वाले चिकने और नीले रंग के रोंये वाली भेड़ों की खाल से श्रद्धा का शरीर डाका है जो उसके लिए एक तरह के कवच का काम कर रहा है.
दूसरे पद में कवि श्रद्धा के उसी रूप की प्रशंशा में आगे कहता है कि नीले परिधान के बीच से उसके शरीर का खुला गोरा बदन इस तरह से सुशोभित हो रहा है मानो बादलों के बीच गुलाबी रंग का फूल खिल आया हो. कहने का अर्थ है कि श्रद्धा के यौवन की लालिमा नीले रोंये वाले परिधान के बीच से बहुत ही सुन्दर रूप में शोभायमान हो रही है.
तीसरा पद श्रद्धा के मुखमंडल की शोभा का चित्रण कर रहा है इसमें कवि ने उसकी प्रशंशा में लिखा है कि ऐसा लग रहा है मानो पश्चिम के आकाश में बादल घिर आये हों और सूरज की लालिमा उनको दूर कर सामने आ खिली हो.
----------------------------------------------------------------------------
कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने के लिए बहुत अवकाश चाहिए. छाया वाद के प्रमुख स्तंभों में जयशंकर प्रसाद जी का नाम है और उनके ये पद कामायनी से लिए गए हैं.
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तीसरे प्रश्न के लिए विस्तार चाहिए जो फिर कभी.
------------------------------------------------------------------------
फिर भी इनके पीछे का कारण बताइयेगा कि ऐसे प्रश्न क्यों और किसलिए, शायद आगे आपके काम आ सकें.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
नमस्कार
जयशंकर प्रसाद जी को पढने वाले के लिए ये बहुत कठिन नहीं है पर ये समझ नहीं आया कि सन्दर्भ सहित व्याख्या की क्या आवश्यकता पड़ गई. फिर भी एक प्रयास है
प्रस्तुत पद्यांश में कवि श्रृद्धा की अलौकिक सुन्दरता का चित्रण कर रहा है जिसमें पहले पद में कवि का कहना है कि गांधार देश में पाए जाने वाले चिकने और नीले रंग के रोंये वाली भेड़ों की खाल से श्रद्धा का शरीर डाका है जो उसके लिए एक तरह के कवच का काम कर रहा है.
दूसरे पद में कवि श्रद्धा के उसी रूप की प्रशंशा में आगे कहता है कि नीले परिधान के बीच से उसके शरीर का खुला गोरा बदन इस तरह से सुशोभित हो रहा है मानो बादलों के बीच गुलाबी रंग का फूल खिल आया हो. कहने का अर्थ है कि श्रद्धा के यौवन की लालिमा नीले रोंये वाले परिधान के बीच से बहुत ही सुन्दर रूप में शोभायमान हो रही है.
तीसरा पद श्रद्धा के मुखमंडल की शोभा का चित्रण कर रहा है इसमें कवि ने उसकी प्रशंशा में लिखा है कि ऐसा लग रहा है मानो पश्चिम के आकाश में बादल घिर आये हों और सूरज की लालिमा उनको दूर कर सामने आ खिली हो.
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कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने के लिए बहुत अवकाश चाहिए. छाया वाद के प्रमुख स्तंभों में जयशंकर प्रसाद जी का नाम है और उनके ये पद कामायनी से लिए गए हैं.
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तीसरे प्रश्न के लिए विस्तार चाहिए जो फिर कभी.
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फिर भी इनके पीछे का कारण बताइयेगा कि ऐसे प्रश्न क्यों और किसलिए, शायद आगे आपके काम आ सकें.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
नमस्कार
जयशंकर प्रसाद जी को पढने वाले के लिए ये बहुत कठिन नहीं है पर ये समझ नहीं आया कि सन्दर्भ सहित व्याख्या की क्या आवश्यकता पड़ गई. फिर भी एक प्रयास है
प्रस्तुत पद्यांश में कवि श्रृद्धा की अलौकिक सुन्दरता का चित्रण कर रहा है जिसमें पहले पद में कवि का कहना है कि गांधार देश में पाए जाने वाले चिकने और नीले रंग के रोंये वाली भेड़ों की खाल से श्रद्धा का शरीर डाका है जो उसके लिए एक तरह के कवच का काम कर रहा है.
दूसरे पद में कवि श्रद्धा के उसी रूप की प्रशंशा में आगे कहता है कि नीले परिधान के बीच से उसके शरीर का खुला गोरा बदन इस तरह से सुशोभित हो रहा है मानो बादलों के बीच गुलाबी रंग का फूल खिल आया हो. कहने का अर्थ है कि श्रद्धा के यौवन की लालिमा नीले रोंये वाले परिधान के बीच से बहुत ही सुन्दर रूप में शोभायमान हो रही है.
तीसरा पद श्रद्धा के मुखमंडल की शोभा का चित्रण कर रहा है इसमें कवि ने उसकी प्रशंशा में लिखा है कि ऐसा लग रहा है मानो पश्चिम के आकाश में बादल घिर आये हों और सूरज की लालिमा उनको दूर कर सामने आ खिली हो.
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कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने के लिए बहुत अवकाश चाहिए. छाया वाद के प्रमुख स्तंभों में जयशंकर प्रसाद जी का नाम है और उनके ये पद कामायनी से लिए गए हैं.
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तीसरे प्रश्न के लिए विस्तार चाहिए जो फिर कभी.
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फिर भी इनके पीछे का कारण बताइयेगा कि ऐसे प्रश्न क्यों और किसलिए, शायद आगे आपके काम आ सकें.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
नमस्कार
जयशंकर प्रसाद जी को पढने वाले के लिए ये बहुत कठिन नहीं है पर ये समझ नहीं आया कि सन्दर्भ सहित व्याख्या की क्या आवश्यकता पड़ गई. फिर भी एक प्रयास है
प्रस्तुत पद्यांश में कवि श्रृद्धा की अलौकिक सुन्दरता का चित्रण कर रहा है जिसमें पहले पद में कवि का कहना है कि गांधार देश में पाए जाने वाले चिकने और नीले रंग के रोंये वाली भेड़ों की खाल से श्रद्धा का शरीर डाका है जो उसके लिए एक तरह के कवच का काम कर रहा है.
दूसरे पद में कवि श्रद्धा के उसी रूप की प्रशंशा में आगे कहता है कि नीले परिधान के बीच से उसके शरीर का खुला गोरा बदन इस तरह से सुशोभित हो रहा है मानो बादलों के बीच गुलाबी रंग का फूल खिल आया हो. कहने का अर्थ है कि श्रद्धा के यौवन की लालिमा नीले रोंये वाले परिधान के बीच से बहुत ही सुन्दर रूप में शोभायमान हो रही है.
तीसरा पद श्रद्धा के मुखमंडल की शोभा का चित्रण कर रहा है इसमें कवि ने उसकी प्रशंशा में लिखा है कि ऐसा लग रहा है मानो पश्चिम के आकाश में बादल घिर आये हों और सूरज की लालिमा उनको दूर कर सामने आ खिली हो.
कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने के लिए बहुत अवकाश चाहिए. छाया वाद के प्रमुख स्तंभों में जयशंकर प्रसाद जी का नाम है और उनके ये पद कामायनी से लिए गए हैं.
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तीसरे प्रश्न के लिए विस्तार चाहिए जो फिर कभी.
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फिर भी इनके पीछे का कारण बताइयेगा कि ऐसे प्रश्न क्यों और किसलिए, शायद आगे आपके काम आ सकें.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
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