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रविवार, 11 अगस्त 2013

"बाबा नागार्जुन आधी रात के बाद लिखते थे" (डा. रूपचन्द्र शास्त्री ‘'मयंक')

चित्र में- डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री, स्कूटर पर हाथ रखे बाबा नागार्जुन, 
मेरी माता जी, मेरी श्रीमती अमर भारती और छोटा पुत्र विनीत।


     बाबा नागार्जुन, अपने दिल्ली के पड़ोसी मित्र और जाने-माने चित्रकार और कवर डिजाइनर हरिपाल त्यागी के साथ खटीमा महाविद्यालय के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष वाचस्पति शर्मा के यहाँ आये हुए थे। वाचस्पति जी मेरे अभिन्न मित्रों में से थे। इसलिए बाबा जी मुझे भी बड़ा प्यार करने लगे। 

     अब हरिपाल त्यागी जी बातें हुईं तो पता लगा कि वे तो मेरे शहर नजीबाबाद के पास के गाँव महुआ के ही मूल निवासी निकले। बातों ही बातों में उन्होंने कहा कि मेरे भतीजे रूपचन्द त्यागी तो नजीबाबाद के ही किसी इण्टर कालेज में अंग्रेजी के प्रवक्ता थे।
जब रूपचन्द त्यागी की बात चली तो मैंने उन्हें बताया कि उन्होंने तो मुझे इण्टर में अंग्रेजी पढ़ाई है। फिर मैंने उनसे पूछा कि अशोक त्यागी आपके कौन हुए। उन्होंने बताया कि वह मेरा पोता है और रूपचन्द त्यागी का सगा भतीजा है। मैंने कहा कि वो मेरा क्लास-फैलो था और मेरा सबसे अच्छा मित्र था।
    दो मिनट के बाद त्यागी जी ने मुझे एक रेखा-चित्र दिखाया और कहा- ‘‘शास्त्री जी! ये आप ही हैं।’’ वो रेखा चित्र-अगले किसी संस्मरण में प्रकाशित करूँगा। उसके बाद बाबा से बातें होने लगी।
    बाबा ने कहा- ‘‘शास्त्री जी! मैं आपके घर परसों आऊँगा।’’
ठीक 2 दिन बाद बाबा वाचस्पति जी के दोनों पुत्रों अनिमेष और अलिन्द के साथ मेरे घर सुबह 8 बजे पहुँच गये। ये दोनों बालक मेरे ही विद्यालय में पढ़ते थे। बाबा के आने के बाद नाश्ते की तैयारी शुरू हुई। उनसे पूछा गया कि बाबा नाश्ते में क्या लेना पसन्द करोगे?
     बाबा बोले- ‘‘मुझे नाश्ते में मीठा दलिया बना दो।’’
     मेरी श्रीमती जी दलिया बना कर ले आयीं और बाबा को दे दिया। बाबा जी तो ठहरे साफ-साफ कहने वाले।बोले- 
     ‘‘तुम इतनी बड़ी हो गयी हो। तुम्हें दलिया भी बनाना नही आता। इसमें क्या खा लूँ । इसमें तो दूध ही दूध है। दलिया तो नाम मात्र का ही है।’’
     खैर बाबा ने दलिया खा लिया। दोपहर को श्रीमती जी ने बाबा से खाने के बारे में पूछा गया कि बाबा खाने में क्या पसन्द है?
    बाबा ने श्रीमती जी को पुचकारा और कहा- ‘‘बेटी मेरे कहने का बुरा मत मानना। मैंने तुम्हारे भले के ही लिए डाँटा था।’’ (तब से श्रीमती जी दलिया अच्छा बनाने लगीं हैं।)
बाबा ने कहा - ‘‘मुझे कटहल बड़ा प्रिय लगता है। लेकिन बुढ़ापे में ज्यादा पचता नही है। तुरई, लौकी जल्दी पच जातीं हैं।’’
     दोपहर को श्रीमती जी ने कटहल की और लौकी की सब्जी बनाई। बाबा ने बड़े चाव से भोजन किया।
     मैंने बाबा से कहा कि बाबा यहीं ड्राइंग रूम में दीवान पर सो जाना। बाबा बोले- ‘‘नही मैं तो तुम्हारे स्कूल के कमरे में ही सोऊँगा।’’
     अतः बाबा की इच्छानुसार उनका वहीं पर बिस्तर कर दिया गया।
एक बात तो लिखना भूल ही गया, बाबा अपने साथ एक मैग्नेफाइंग ग्लास रखते थे। उसी से वो पढ़ पाते थे।
     रात में जब मेरी आँख खुली तो मैंने सोचा कि एक बार बाबा को देख आऊँ। मैं जब उनको देखने गया तो बाबा ट्यूब लाइट जला कर एक हाथ में मैंग्नेफाइंग ग्लास ग्लास लिए हुए थे और कुछ लिख रहे थे। मैंने बाबा को डिस्टर्ब करना उचित नही समझा और उल्टे पाँव लौट आया।
      एक बात तो आज भी घर के सब लोग याद करते हैं कि बाबा नहाने के मामले में बड़े कंजूस थे। वे हफ्तों तक नहाते ही नही थे। खैर बाबा 3-4 दिन मेरे घर रहे। दिन में वे मेरे दोनों पुत्रों और पिता जी व माता जी के साथ काफी बातें करते थे। रात को स्कूल की क्लास-रूम में सो जाते थे।
     रात में जब 1-2 बजे मेरी आँख खुलती थी तो बाबा के एक हाथ में मैग्नेफाइंग-ग्लास होता था और दूसरे हाथ में पेन।
    मैंने बाबा को 76 साल की उम्र में भी रात में कुछ लिखते हुए ही पाया था।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

"एक संस्मरण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

चित्र में- (बालक) मेरा छोटा पुत्र विनीत, मेरे कन्धें पर हाथ रखे बाबा नागार्जुन और चाय वाले भट्ट जी, पीछे-बीस वर्ष पूर्व का खटीमा का बस स्टेशन।
    बाबा नागार्जुन की तो इतनी स्मृतियाँ मेरे मन व मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं कि एक संस्मरण लिखता हूँ तो दूसरा याद हो आता है। मेरे व वाचस्पति जी के एक चाटुकार मित्र थे। जो वैद्य जी के नाम से मशहूर थे। वे अपने नाम के आगे निराशलिखते थे। अच्छे शायर माने जाते थे। 
      आजकल तो दिवंगत हैं। परन्तु धोखा-धड़ी और झूठ का व्यापार इतनी सफाई व सहजता से करते थे कि पहली बार में तो कितना ही चतुर व्यक्ति क्यों न हो उनके जाल में फँस ही जाता था।
      उन दिनों बाबा नागार्जुन का प्रवास खटीमा में ही था। यहाँ डिग्री कॉलेज में वाचस्पति जी हिन्दी के प्राध्यापक थे। इसलिए विभिन्न कालेजों की हिन्दी विषय की कापी उनके पास मूल्यांकन के लिए आती थीं। उन दिनों चाँदपुर के कालेज की कापियाँ उनके पास आयी हुईं थी।
       तभी की बात है कि दिन में लगभग 2 बजे एक सज्जन वाचस्पति जी का घर पूछ रहे थे। उन्हें वैद्य जी टकरा गये और राजीव बर्तन स्टोर पर बैठ कर उससे बातें करने लगे। बातों-बातों में यह निष्कर्ष निकला कि उनके पुत्र का हिन्दी का प्रश्नपत्र अच्छा नही गया था। इसलिए वो उसके नम्बर बढ़वाने के लिए किन्ही वाचस्पति प्रोफेसर के यहाँ आये हैं।
       वैद्य जी ने छूटते ही कहा- "प्रोफेसर वाचस्पति तो मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं। लेकिन वो एक नम्बर बढ़ाने के एक सौ रुपये लेते हैं। आपको जितने नम्बर बढ़वाने हों हिसाब लगा कर उतने रुपये दे दीजिए।"
      बर्तन वाला राजीव यह सब सुन रहा था। उसकी दूकान के ऊपर ही वाचस्पति जी का निवास था और वह उनका परम भक्त था।
      राजीव चुपके से अपनी दूकान से उठा और पीछे वाले रास्ते से आकर वाचस्पति जी से जाकर बोला- ‘‘सर जी! आप भी 100 रु0 नम्बर के हिसाब से ही परीक्षा में नम्बर बढ़ा देते हैं क्या?’’ और उसने अपनी दुकान पर हुई पूरी घटना बता दी।
      वाचस्पति जी ने राजीव से कहा- "जब वैद्य जी! चाँदपुर से आये व्यक्ति का पीछा छोढ़ दें, तो उस व्यक्ति को मेरे पास बुला लाना।"
       इधर वैद्य जी ने 10 अंक बढ़वाने के लिए चाँदपुर वाले व्यक्ति से एक हजार रुपये ऐंठ लिए थे।
       बाबा नागार्जुन भी राजीव और वाचस्पति जी की बातें ध्यान से सुन रहे थे।
      थोड़ी ही देर में वैद्य जी वाचस्पति जी के घर आ धमके। इसी की आशा हम लोग कर रहे थे। पहले तो औपचारिकता की बातें होती रहीं। फिर वैद्य जी असली मुद्दे पर आ गये और कहने लगे कि मेरे छेटे भाई चाँदपुर में रहते हैं। सुना है कि आपके पास चाँदपुर के कालेज की हिन्दी की कापियाँ जँचने के लिए आयीं है। आप प्लीज मेरे भतीजे के 10 नम्बर बढ़ा दीजिए।
     वाचस्पति जी ने कहा- ‘‘वैद्य जी मैं यह व्यापार नही करता हूँ।’’
तब तक राजीव चाँदपुर वाले व्यक्ति को भी लेकर आ गया। 
    हम लोग तो वैद्य जी से कुछ बोले नही। परन्तु बाबा नागार्जुन ने वैद्य जी की क्लास लेनी शुरू कर दी। सभ्यता के दायरे में जो कुछ भी कहा जा सकता था बाबा ने खरी-खोटी के रूप में वो सब कुछ वैद्य जी को सुनाया।
     अब बाबा ने चाँदपुर वाले व्यक्ति से पूछा- ‘‘आपसे इस दुष्ट ने कुछ लिया तो नही है।’’
     तब 1000 रुपये वाली बात सामने आयी।
        बाबा ने जब तक उस व्यक्ति के रुपये वैद्य जी से वापिस नही करवा दिये तब तक वैद्य जी का पीछा नही छोड़ा।
       बाबा ने उनसे कहा- ‘‘वैद्य जी अब तो यह आभास हो रहा है कि तुम जो कविताएँ सुनाते हो वह भी कहीं से पार की हुईं ही होंगी। साथ ही वैद्य जी को हिदायत देते हुए कहा- 
"अच्छा साहित्यकार बनने से पहले अच्छा व्यक्ति बनना बहुत जरूरी है।"

चुराइए मत! अनुमति लेकर छापिए!!

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